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आज गाँव को लिखने बैठी तो मेरी कलम मेरी अंर्तवेदना से झगड़ पड़ी, कहने लगी मैं इस बार रोते बिलखते शब्दों की ऊंगलियां थाम कर नहीं चलूँगी । गाँव केवल दर्द तो नहीं, खुशी भी तो है । वेदना ने जिरह की और कहा लेकिन उनकी सुखअल्पता को महसूस कराना क्या आवश्यक नहीं ? फिर उसने झल्लाते हु, पूछा तो क्या इन शब्दों पर उनकी जिन्दगी की मुस्कराहटों का कोई अधिकार नहीं ? लेखन की अदालत में खड़ी मेरी अंर्तवेदना और कलम से न्यायाधीश बने मेरे पन्नों ने कहा – समझौता कर लो वरना, यदि मैं ना रहा तो ना कलम रहेगी ना वेदना और ना ये शब्द, आँखों में आँखें डाल वेदना और कलम मुस्करा दिये और फैसला मुस्कराहटों के पक्ष में आ गया, फिर मेरी कलम ने शुरू किया हंसते मुस्कराते खूबसूरत गाँव को शब्दों का रूप देने का सफर ।
वैसे तो मैंने कई गाँवों का दर्द पन्नों पर उकेरकर लोगों तक पहुँचाया लेकिन इस बार गाँव था पहाड़ का नाम थ बंग्लो की कांडी । टिहरी जिले का ये गाँव चारों ओर नभस्पर्शी पहाड़ों के बीच बसा है, मसूरी से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी है। इस बार पहाड़ के टूरिस्ट स्पॉट देखने के स्थान पर हमने पहाड़ी गाँव देखने का निर्णय लिया, और निकल गये उन चनौतियों से मिलने जिनसे ये पहाड़ी लोग हर रोज मुस्कराकर और उनसे दोस्ती करके जूझते हैं । इस यात्रा में सकरे रास्तों पर पीठ पर खुद के बराबर बोझ लादे चढ़ते लोगों को देखकर मन यही कह रहा था कि उत्तराखंड यदि देवभूमि है तो यहाँ के रहवासी तपस्वी से कम नहीं जो जीवन के विपरीत चुनौतियों से हर पल लड़ते हैं और जीतते हैं । हमारी कार पहाड़ के दुर्गम रास्तों पर लगभग गुर्राते हुए चल रही थी लेकिन ड्राइवर की डपट के कारण चुपचाप आगे की ओर चढ़े जा रही थी अनमनी सी, काली साँसें छोड़ते हुए ।
सड़कों के किनारों को जैसे ही गाड़ी छूती हिमालय की ओर खुदबखुद आँखें चली जातीं और भगवान शंकर याद आ जाते, लेकिन सुखकर्त्ता गौरीपुत्र की अनुकम्पा से पहाड़ के ऊपरी हिस्से की ओर पहुँच गये, नीचे झांकने पर चीटियों सम दिखाई पड़ते गाँव ऐसे लग रहे थे जैसे गहरी मटकी में नैनू उतराया दिखाई पड़ता है। हरे पीले परिधानों को पहने इन पहाड़ों पर सड़कें वासुकी से लिपटी दिखाई पड़ती हैं, जब मैं गाड़ी से इन पहाडि़यों के रास्तों पर जैसे जैसे आगे बढ़ी तो स्वयं को मथता हुआ महसूस कर रही थी, किनारों पर देवदार और रंग बिरंगे फूल आपके लिये स्वागत मण्डप बनाये खड़े थे और दूर आकाश में शिव की जटाओ के चन्द्रमा के समान सफेद चमकता भारत का भाल हिमालय दिखाई पड़ जाता है। माता पार्वती अपने इस मायके में धूप बनीं कभी इस श्रृंखला पर खेलती दिखाई पड़ जाती हैं कभी दूसरी पर। कभी धानी श्रृंगार कर लेती हैं कभी पीला, कभी लाल। प्रकृति और पुरुष की इन अप्रतिम झांकियों को देखते-देखते हम आ पहुँचे बंग्लो की काण्डी ।
देवदार से लम्बे तीखे नक्श, हिमालय का सफेद तेज मुख पर लिये यहाँ की महिलाओं ने हमारा गर्मजोशी से ऐेसा स्वागत किया कि हम भी हैरान थे कि जिन्हें हम पहली बार मिल रहे हैं, देख रहे हैं वो इतनी आत्मीय कैसे हो सकती हैं । उनके मुस्कराते चेहरों की चमक जैसे हमारे आने से दोगुनी हो गई, कोई चाय कोई भुट्टे, कोई भोजन लिये सामने खड़ा था, हम पूरे गाँव के मेहमान थे, ‘अतिथि देवो भव्’ की परम्परा का वास्तविक ज्ञान यहीं हुआ । बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो हमने सोचा यहाँ भी इनके आभाव और आवश्यकताओं को ले जाकर उन तक पहुँचाने की कोशिश करूंगी जो उनकी पूर्ति करने में सक्षम है, क्योंकि आमतौर पर जब मैं गाँवों में जाती हूँ तो एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी शिकायतें अपनी तकलीफों की गठरियाँ इस उम्मीद में लेकर आते हैं कि शायद यहाँ से उनकी कोई सुनवाई हो सके , लेकिन यहाँ किसी की कोई शिकायत थी ही नहीं । मैनें पूछा इतने ऊपर सामान लाना ले जाना सब्जी, राशन कैसे करते हैं और इस छोटे से गाँव में कहाँ से काम लाते हैं, कठिनाइयां नहीं होती? हाथ से सीढ़ीनुमा खेतों की तरफ इशारा करके कहा यहाँ से हम खुद उगाते हैं और खाते हैं और रही काम की बात तो कैम्पटी में छोटी-छोटी दुकानें चलाकर जीवन जीने भर का पैसा आ जाता है और जब जरूरतें ही कम हैं तो ज्यादा की चाह नहीं, मेहनत करनी हमें आता है तो दुख का प्रश्न ही नहीं, साथ ही हमारे खुश रहने कारण भी है कि हम किसी दूसरे से उम्मीदें नहीं लगाते बस अपने पर भरोसा है । हालांकि इनके चेहरे भले मुस्करा रहे थे लेकिन गाँव में केवल महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों की उपस्थिति से पहाड़ी गाँवों की पीड़ा खुद ब खुद बेपर्दा हो रही थी, इसलिये इस वेदना को ना कुरेदते हुए मैनें अगला सवाल पूछा जब आपदायें आती हैं तब? तो जवाब था जब साक्षात् शिव और माता पार्वती की गोद में बैठे हैं तो तकलीफ कैसी, सब पार कर लेते हैं। उनके जवाबों ने अधिक प्रश्न पूछने की मेरी हिम्मत को चुरा लिया मैनें उनके खेत का भुट्टा लिया और खाने लगी और पहले ही निवाले ने हैरान कर दिया इस कदर मीठा भुट्टा कभी नहीं खाया था, राज़ पूछा तो पता चला वे किसी कैमिकल खाद का प्रयोग नहीं करते । फिर तो जो कुछ खाया वो इस कदर स्वादिष्ट जिसकी शायद हम मैदानी इलाकों में रहने वालों ने कल्पना भी नहीं की होगी, सब्जियां यदि कच्ची भी खाई जाएँ तो वे मीठी लगती हैं ।
अब बारी थी इस पहाड़ी गाँव की गलियों में घूमने की, सबने अपने-अपने घरों के भीतर तक के दरवाजे खोल दिये, कुछ लोगों ने पक्के घर बनवा लिये थे तो कुछ अभी भी अपने पारम्परिक लकड़ी से बने घरों में रहते हैं, इन पारम्परिक घरों के दरवाजे बेहद छोटे होते हैं और एक छोटा सा रौशनदान । इसका कारण पूछा तो कहा ये तो वीरान पहाड़ी दुर्गम स्थान है यहाँ जानवरों का खतरा रहता है इसलिये सब दरवाजे छोटे हैं ताकि वे अन्दर न घुस सकें ।
शाम हो चली थी पहाड़ों पर अंधेरे में चलना जिन्दगी को खतरे में डालना होता इसलिये बंग्लो की काण्डी से जाने की इजाजत मांगी तो सारा गाँव उनके यहाँ बसेरा करने की जिद करने लगा लेकिन अगले दिन शहर की जहरीली हवाओं से अप्वाइंटमेण्ट था सो आना ही था, लेकिन उन पहाड़ वासियों को नमन किया और अगली बार ठहरने का वादा करके अनमने मन से रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हो गये और रास्ते भर उस विकास की सर्वोच्च इबारत लिखते शहर और इस गाँव का तुलनात्मक अध्ययन करते रहे जहाँ हमारे दरवाजों पर कभी सामने वाले घर के लोग भी दस्तक नहीं देते और कभी धोखे से कोई दस्तक हो जाती है तो अधखुले दरवाजों से सवाल जवाब करके लौटा देते हैं। जहाँ ये अपरिचित गाँव हमारे आने पर त्योहार सा मना रहा था, वहीं शहर के हमारे अपने घर आने पर अपनी नींदों को छोड़ना भी मुनासिब नहीं समझते। अब इस तुलनात्मक अध्ययन से यही प्रश्न हृदय को उद्वेलित कर रहा था कि ये विकसित चमचमाते शहर उदाहरण होने चाहिये या फिर ये अपरिचित गाँव !
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